उत्तराखंड के नैन सिंह को गूगल दे रहा श्रद्धांजलि

उत्तराखंड के नैन सिंह को गूगल ने श्रद्धांजलि दी है। गूगल ने डूडल के जरिये उनके कार्य को सराह रहा है। रायल ज्योग्रेफिकल सोसायटी एवं सर्वे ऑफ इंडिया के लिए पं. नैन सिंह रावत भीष्म पितामह के रूप में माने जाते हैं। कहते हैं नैन सिंह रावत ही दुनिया के पहले शख्स थे जिन्होंने लहासा की समुद्र तल से ऊंचाई कितनी है, बताई। उन्होंने अक्षांश और देशांतर क्या हैं, बताया। इस दौरान करीब 800 किमी तक पैदल यात्रा की और दुनिया को ये भी बताया कि ब्रह्मपुत्र और स्वांग एक ही नदी है।

भारत चीन सीमा पर स्थित मुनस्यारी तहसील के अंतिम गांव मिलम निवासी पं. नैन सिंह का जन्म 21 अक्टूबर 1830 को अमर सिंह मिलव्वाल के घर हुआ था। यह परिवार सामान्य परिवार था। अलबत्ता नैन सिंह के दादा धाम सिंह रावत को कुमाऊं के राजा दीप चंद ने 1735 में गोलमा और कोटल गांव जागीर में बख्शे थे। पं. नैन सिंह रावत की शिक्षा प्राथमिक स्तर तक ही हुई थी। बाद में इसी विद्यालय में वह शिक्षक हो गए थे। शिक्षक बनने पर उन्हें लोगों ने पंडित की उपाधि दे दी। उन्हें इसी नाम से जाना जाता है। इनके चचेरे भाई स्व. किशन सिंह रावत भी शिक्षक थे। दोनों भाइयों को पंडित की उपाधि मिली थी।


पं. नैन सिंह रावत ने अपने जीवन में उपलब्धि वर्ष 1955-56 से प्रारंभ की। लाघ -इट-वाइट बंधुओं के साथ दुभाषिए तथा सर्वेक्षक के रूप में तुर्किस्तान की यात्रा कर चुके थे। तिब्बती भाषा का ज्ञान और इनकी कार्यकुशलता से प्रभावित जर्मन बंधु इन्हें अपने साथ यूरोप ले जाना चाहते थे। नैन सिंह रावत रावलपिंडी तक तो पहुंचे परंतु अपनी माटी की याद आते ही वापस लौट आए। वर्ष 1863 में उन्हें देहरादून बुलाया, जहां पर सुपरिडेंटेंट कर्नल जेटी वाकर द्वारा ग्रेट ट्रिग्नोमेट्रिक सर्वे में एक अन्वेषक के रूप में की गई और उन्हें भारतीय सीमा के बाहरी क्षेत्रों में कार्य करने के लिए टापोग्राफिकल आवजर्वेशन का प्रशिक्षण दिया गया।
भ्रमण करने का था शौक
बिट्रिश भारत के दौरान अंग्रेजों ने गुप्त रूप से तिब्बत और रूस के दक्षिणी भाग का सर्वेक्षण की योजना बनाई। इस कार्य के लिए अंग्रेजों को पं. नैन सिंह रावत का नाम सुझाया। अंग्रेजों ने उन्हें नाप जोख का कार्य सौंपा। उन्हें ब्रह्मपुत्र घाटी से लेकर यारकंद इलाके तक की नाप जोख करनी थी। इस कार्य के लिए उनके भाई किशन सिंह रावत और पांच लोग शामिल किए गए। यह कार्य गुप्त होने से नाप जोख खुले आम नहीं कर सकते थे।

पंडित नैन सिंह द्वारा वर्ष 1865 से 1885 के मध्य लिखे गए यात्रा वर्णन में हिमालय तिब्बत तथा मध्य एशिया की तत्कालीन भाषा के साथ अनेक एशिसाई समाजों की दुलर्भ झलक मिलती है। इस दौरान उन्होंने 1865-66 में काठमांडू-ल्हासा-मानसरोवर, 1967 सतलज सिंधु उद्गम व थेक जालुंग, 1870 डगलस फोरसिथ का पहला यारकंद-काशगर मिशन, 1873 डगलस फोरसिथ का दूसरा यारकंद-काशगर मिशन, 1874-75 लेह-ल्हासा, तवांग थी।
पं. नैन सिंह रावत द्वारा तीन पुस्तकें ठोक-ज्यालुंग की यात्रा, यारकंद यात्रा और अक्षांस दर्पण पुस्तकें 1871 से 73 के मध्य प्रकाशित हुई थी। बताया जाता है कि उन्होंने अपनी जीवनी भी लिखी थी, लेकिन वह खो गई। तिब्बत की राजधानी ल्हासा का इसमें सुंदर वर्णन था। वर्ष 1890 में उनका देहांत हो गया।
कम्पेनियन इंडियन इम्पायर अवार्ड से हुए थे सम्मानित

1200 मील पैदल चल कर सर्वे करने वाले पं. नैन सिंह रावत को अंग्रेजी हुकूमत ने कोलकाता में सीआईएस (काम्पेनियन इंडियर अवार्ड) से सम्मानित किया था। तब एक भारतीय को अंग्रेजों द्वारा इतने बड़े सम्मान से सम्मानित किए जाने पर कोलकाता में जश्न मना था। भारतीयों ने इसका स्वागत अपने घरों में घी के दीये जलाकर किया था।
आज गूगल नैन सिंह की जयंती मना रहा है
सर्च इंजन गूगल ने नैन सिंह रावत का डूडल बनाया है, जिन्हें बिना किसी आधुनिक उपकरण के पूरे तिब्बत का नक्शा तैयार करने का श्रेय जाता है। कहा जाता है कि अंग्रेजी हुकूमत के लोग भी उनका नाम पूरे सम्मान के साथ लेते थे। उस समय तिबब्त में किसी विदेशी शख्स के जाने पर सख्त मनाही थी। अगर कोई चोरी छिपे तिब्बत पहुंच भी जाए तो पकड़े जाने पर उसे मौत तक की सजा दी सकती थी। ऐसे में स्थानीय निवासी नैन सिंह रावत अपने भाई के साथ रस्सी, थर्मामीटर और कंपस लेकर पूरा तिब्बत नाप आए। दरअसल 19वीं शताब्दी में अंग्रेज भारत का नक्शा तैयार कर रहे थे लेकिन तिब्बत का नक्शा बनाने में उन्हें परेशानी आ रही थी। तब उन्होंने किसी भारतीय नागरिक को ही वहां भेजने की योजना बनाई। जिसपर साल 1863 में अंग्रेज सरकार को दो ऐसे लोग मिल गए जो तिब्बत जान के लिए तैयार हो गए।