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जानिए, सर्वोच्च न्यायालय का मध्यस्थता में उठाई गई प्रारंभिक आपत्ति को लेकर अहम फैसला

सर्वोच्च न्यायालय का मध्यस्थता में उठाई गई प्रारंभिक आपत्ति को लेकर अहम फैसला दिया है। साधारण भाषा में इसे देहरादून के उभरते हुए अधिवक्ता कार्तिक पांडेय से समझते हैं।

दरअसल, माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने हाल के निर्णय अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर रियल एस्टेट फंड बनाम नीलकंठ रियल्टी (2025 INSC 1028) में डिमरर सिद्धांत की व्याख्या की है। न्यायालय ने इसे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश VII नियम 11(घ) के समान माना और स्पष्ट किया कि इसका प्रयोग केवल शुद्ध विधिक प्रश्नों तक सीमित है। इस निर्णय में कहा गया है कि सीमा-अवधि की आपत्ति प्रारंभिक चरण में खारिज होने पर भी, प्रतिवादी बाद में मुकदमे के दौरान साक्ष्य के आधार पर इस मुद्दे को पुनः उठा सकता है। साथ ही, इसने मध्यस्थता में पक्षकारों की स्वायत्तता की सीमाओं को भी रेखांकित किया है, यह सुनिश्चित करते हुए कि स्थापित कानूनी सिद्धांतों की अनदेखी न हो।

डिमरर शब्द, जो कभी अंग्रेज़ी कॉमन-लॉ की दलील प्रणाली का मूल तत्व था, एक ऐसी विधिक आपत्ति को व्यक्त करता है जिसमें प्रतिवादी यह दावा करता है कि वादी द्वारा प्रस्तुत सभी तथ्य सत्य माने जाने पर भी, वे वैध कार्यवाही का कारण (वाद-हेतुक) स्थापित नहीं करते हैं। हालाँकि, सिविल प्रक्रिया संहिता , 1908 के लागू होने के साथ डिमरर को औपचारिक रूप से समाप्त कर दिया गया परंतु इसका बुनियादी सिद्धांत भारतीय न्यायिक प्रक्रिया को आज भी प्रभावित करता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हाल के निर्णय अर्बन इंफ्रास्ट्रक्चर रियल एस्टेट फंड बनाम नीलकंठ रियल्टी प्राइवेट लिमिटेड (2025 INSC 1028) में मध्यस्थता तथा प्रक्रिया-विधि के महत्त्वपूर्ण सिद्धांतों जैसे डिमरर के क्षेत्र-सीमा और पक्ष-स्वायत्तता की सीमाओं को स्पष्ट किया है।
किसी प्रारंभिक आपत्ति का निर्णय दो तरीकों से किया जा सकता है:
(क) डिमरर के आधार पर, या
(ख) पक्षकारों द्वारा केवल उस प्रारंभिक मुद्दे से संबंधित साक्ष्य प्रस्तुत करने के बाद।
सर्वोच्च न्यायालय ने डिमरर को मूलभाव से सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश VII नियम 11(घ) के समतुल्य माना, परंतु यह स्पष्ट किया कि इसका प्रयोग केवल शुद्ध विधिक प्रश्नों तक सीमित है इसे विवादित तथ्यात्मक मुद्दों पर लागू नहीं किया जा सकता, और मध्यस्थता की कार्यवाही में डिमरर पर निष्कर्ष पुनर्विचार के लिए खुले रहते हैं।

जब यह आपत्ति उठाई जाती है कि वादपत्र सीमा-अवधि समाप्त होने के बाद दायर किया गया है, और इस आपत्ति का निर्णय डिमरर के आधार पर (जो कि CPC के आदेश VII नियम 11(घ) के समान है) किया जाता है, तब उस चरण पर प्रतिवादी पर कोई साक्ष्य प्रस्तुत करने का दायित्व नहीं होता।
यह उन अधिवक्ताओं के लिए महत्वपूर्ण है जो न्यायालय की दीवानी अधिकारिता में वकालत करते हैं कि यदि न्यायालय वादपत्र को अस्वीकार करने से इंकार करता है, तो प्रतिवादी पर सीमा-अवधि के वाद-बिंदु को बाद में मुकदमे के दौरान पुनः उठाने पर विबंधन के सिद्धांत का कोई प्रभाव लागू नहीं होता।
न्यायालय ने रमेश बी. देसाई एवं अन्य बनाम बिपिन वदीलाल मेहता एवं अन्य (2006) 5 SCC 638 के निर्णय का उल्लेख करते हुए कहा है कि परिसीमा से संबंधित प्रश्न अक्सर विधि एवं तथ्य दोनों का मिश्रित प्रश्न होता है, जिसे प्रभावी ढंग से निर्णयित करने के लिए साक्ष्य की आवश्यकता होती है। मुकदमे के दौरान जब परिसीमा का वाद-बिंदु साक्ष्य के आधार पर तय किया जाएगा तब प्रतिवादी को न्यायालय के समक्ष साक्ष्य प्रस्तुत करने का अधिकार प्राप्त रहेगा।
कहने का तात्पर्य यह है कि भले ही आदेश VII नियम 11(घ) के अंतर्गत दायर आवेदन को अस्वीकार कर दिया गया हो किंतु सीमा-अवधि/परिसीमा का वाद-बिंदु बाद में उठाया जा सकता है, बशर्ते कि वह अस्वीकृति प्रारंभिक चरण पर हुई हो अर्थात् बिना पूर्ण परीक्षण अथवा साक्ष्य के।
साथ ही साथ, न्यायालय ने यह धारणा व्यक्त की कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के अंतर्गत पक्षकारों की स्वायत्तता मध्यस्थता का आधारभूत स्तंभ और केंद्रीय सिद्धांत है। किंतु यह असीमित या अनियंत्रित नहीं है। न्यायालय ने कहा कि पक्षकारों द्वारा सहमत कोई भी कार्यविधि ऐसी नहीं हो सकती और नहीं होनी चाहिए जिसका परिणाम यह हो कि स्थापित कानूनी सिद्धांतों की अज्ञानता में मामले का निपटान कर दिया जाए।