सनातन संस्कृति के अंतर्गत वर्ष में दो बार आने वाले शक्ति आराधना के पर्व शारदीय और चैत्र नवरात्र के व्रत और आराधना न केवल दिव्यता और आध्यात्मिकता की ओर ले जाते हैं। बल्कि यह हमें सौम्यता के साथ प्रकृति के सम्मान और संरक्षण पाठ भी पढ़ाते हैं। यह बात शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के उत्तराखण्ड प्रान्त पर्यावरण प्रमुख विनोद जुगलान ने कही।
उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति में प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा हमारे पूर्वज पौराणिक काल से हमारे धर्म ग्रन्थों के माध्यम से देते आये हैं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है नवरात्र पूजा के प्रथम दिवस का उपासना मन्त्र या देवी सर्व भूतेषु प्रकृति रूपेण संस्थिता, नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमस्तस्ये नमो नमः।। माता को प्रथम दिन में शैल पुत्री के रूप में पूजा जाता है। पर्वत राज हिमालय के घर में कन्या के अवतार होने से माँ का नाम शैल पुत्री पड़ा। प्रकृति माँ के इस स्वरूप की आराधना सौम्यता और चेतना का सर्वोच्च शिखर प्राप्त होता है। जो कि रोग शोक रूपी दानवों का नाश करती हैं। माँ एक एक हाथ में त्रिशूल शक्ति और दूसरे हाथ में कमल का पुष्प प्रकृति के संरक्षण का प्रतीक हैं। माँ को श्वेत और लाल रँग की वस्तुएँ पसन्द हैं। सफेद सौम्यता और लाल ऊर्जा का प्रतीक है। नौ दुर्गा की आराधना का विधिवत विस्तार से वर्णन मार्कण्डेय पुराण में मिलता है। माँ की आराधना में सौम्यता महत्वपूर्ण है। जो हमें प्रकृति के सम्मान और संरक्षण का संदेश देती है।
उन्होंने कहा कि नवरात्र के शुभारंभ के अवसर पर एक बात तो स्पष्ट है कि पर्वतों के सम्मान प्रकृति के संरक्षण के बिना शैल पुत्री को प्रसन्न नहीं किया जा सकता है। हमें अपनी धार्मिक सांस्कृतिक धरोहरों को बचाना है तो अपने वेद पुराणों पर आधारित शिक्षा को प्रसारित करते हुए प्रकृति के सम्मान और पर्यावरण संरक्षण के महत्वपूर्ण संदेश को युवाओं सहित अगली पीढ़ी तक पहुँचाना न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि अत्यावश्यक भी है।