ड्रग की गिरफत में आते स्कूली बच्चे

-केशव भट्ट

‘ड्रग तो बहुत ही आसानी से मिल जाती है. कई बार स्कूल में पकड़े भी गए तो बात रफा-दफा कर दी जाती है. और कुछ दिनों बाद फिर से वही रूटीन शुरू हो जाता है. पीने वालों को शराब भी मिल जाती है, डे स्कॉलर ले आते हैं चुपचाप. वोदका, रम, सिगरेट सब आ जाती है स्कूल में. बच्चे वॉशरूम में जाकर चुपचाप नशा कर लेते हैं….।’
ये भयानक तस्वीर का एक स्याह पहलू है आजकल के तथाकथित उच्च स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की. बच्चों के अच्छे भविष्य का सपना पाले अभिभावकों को नहीं मालूम कि उनका बच्चा अच्छी शिक्षा के नाम पर अपनी जिंदगी ही दांव में लगा बैठा है. ज्यादातर अभिभावक अपने बच्चों को आगे बढ़ाने के लिए हाड़तोड़ मेहनत कर उन्हें उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने के लिए बोर्डिंग में भेजते हैं. हर वर्ष मोटी फीस देने वाले अभिभावकों को मालूम ही नहीं चलता कि इन शिक्षा मंदिरों में उनके बच्चे शिक्षा के वजाय नशे की गिरफत में फंसते चले जा रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक पिछले पचास वर्षों से पाकिस्तान व अफगानिस्तान से नशा पंजाब से होता हुआ देश के विभिन्न राज्यों में पहुंच रहा है. और ये नशा तो अब पहाड़ों के स्कूलों में भी पहुंच गया है..
बच्चों से बात कर मालूम हुवा कि बोर्डिंग में रहने वाले ज्यादातर बच्चे परिवार से दूर रहने पर अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं. फिर वो अपने साथियों में ही खुशी तलाश लेते हैं. बोर्डिंग में रहने वाले कई बच्चे मॉ-बाप की उपेक्षा का शिकार रहते हैं तो कुछों को उनके अमीर परिजनों ने शौकिया तौर पर डाला होता है कि बच्चा थोड़ा अंग्रेजी सीख जाएगा तो बाद में उनके काम में हाथ बंटाएगा.
कुछ साल पहले मुझे पता लगा कि नैनीताल के एक नामी स्कूल में बोर्डिंग में रहने वाली बच्ची सिगरेट, वोदका का बहुत नशा करती है. श्रीनगर-जम्मू सहित दिल्ली में उसके परिवार का बहुत बड़ा कारोबार था. लड़की होने की वजह से उसके पिता ने उससे दूरी बना रखी थी. यहां तक कि स्कूल में छुट्टियां होने पर भी उसे घर में आने को मना कर दिया जाता था. दिल्ली में उसके पिता का फलैट था, जहां उसका भाई रहता था जो कि दिल्ली का कारोबार देखता था. वो अपनी छुट्टियां वहीं दिल्ली में अकेले बिताया करती थी. भाई अपनी दुनियां में मगन और वो अपनी नशे की दुनियां में मगन. वो बताती थी फोन पर मॉं से बात होने पर दोनों काफी देर तक रोते रहते थे. मॉ मुझसे बहुत प्यार करती हैं, लेकिन वो भी पापा के आगे मजबूर है. नशा क्यों करते हो के सवाल पर उसका कहना था, अपने अब्बू को सबक सीखाने के लिए.. मैं लड़की हूं तो मुझसे नफरत और भाई से प्यार. ये कैसा परिवार है, कैसी मानसिकता है. अच्छे नामी स्कूल में डालने से वो क्या जताना चाह रहे हैं. मुझसे नफरत ही है तो मार ही डालते मुझे पैदा होते ही..
मैं निरूत्तर था.
हांलाकि उस स्कूल में हर जगह सीसी कैमरे थे, बावजूद इसके उस स्कूल के पचास प्रतिशत बच्चे किसी न किसी तरह का नशा करते थे और यह स्थिति अभी भी बरकरार है. कुछ समय पहले नैनीताल के कुछ स्कूलों में बच्चों के ब्लड सैंपल लिए तो ज्यादातर बच्चों में नशे की मात्रा निकली. कुछों का एक महिने पहले नशा करने की तो कुछों में दो-तीन दिन पहले नशे की पुष्टि हुवी. एकाध स्कूलों ने अपने वहां ये सैंपल की परमिशन ही नहीं दी. सायद उन्हें डर था कि कहीं उनका स्कूल बदनाम न हो जाए. इससे उनके स्कूल के बिजनस पर भी असर होने का खतरा था.
एक बच्ची को जब नशे की लत लगी तो पैंसों के लिए उसने अपने हुनर को बेचना शुरू कर दिया. उसे ड्राइंग का शौक था. स्कूली बच्चों के वो कुछ पैंसों में ड्राइंग बना दिया करती थी. बाद में उसने लोगों के स्कैच बनाना शुरू कर दिया. इसके लिए उसे तीनेक सौ रूपया मिल जाते थे. वो डे स्कॉलर थी.
नैनीताल के ही एक और बड़े स्कूल का हाल ये है कि वहां बच्चे स्कूल में चैकिंग से बचने के लिए अपने पैंसे स्कूल के चपरासी के पास रखते हैं. चपरासी को भी कुछ पैंसे की दक्षिणा मिल जाने वाली हुवी. डे स्कॉलर से वो अपने लिए नशे का सामान चुपचाप मंगा लेते हैं. इधर, परिवार वाले गर्व से कहते फिरने वाले हुए कि उनका लड़का तो नैनीताल के फलां स्कूल में पढ़ रहा है. स्कूल मंहगा तो है लेकिन अच्छा है. बोर्डिंग अच्छा है. क्या करें बच्चों के लिए आज के वक्त में इतना तो करना ही पड़ता है.
समाज में अपना स्टेट्स सिंबल को जिंदा रखने का कहें या फिर बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की बात हो, हमारे बच्चों का बचपन किस ओर जा रहा है इस ओर अभिभावकों का ज्यादा ध्यान नहीं है. बच्चे धीरे-धीरे नशे के दलदल में फंस कर अपने परिवार के हाथ से फिसलते चले जाते हैं. जिसका पता उन्हें ताएम्र नहीं हो पाता. बच्चे इसके लिए मॉ-बाप को ही जिम्मेवार ठहराते हैं, वो अपनी गलती मानने के लिए तैंयार हो ही नहीं पाते. इस पर जरूरत है कि बच्चों की काउंसलिंग की जाए. प्राइवेट स्कूल एक तरह से दुकानें बन कर रह गई हैं. स्कूल प्रबंधन की कई तरह की सख्ताई के बावजूद बच्चे कई तरह के नए तरीके ईजाद कर लेते हैं. स्कूल प्रबंधन डांट फटकार के साथ ही बच्चों को सही करने के लिए पीटने का ही एकमात्र तरीका आजमाते हैं. इससे बच्चों में विद्रोह पनपता है और वो हर वो गलत काम करते हैं जिससे उन्हें संतुष्टि मिले. थकहार कर स्कूल प्रबंधन भी चुप्पी साध लेता है.
होना तो ये चाहिए कि स्कूल प्रबंधन जब बोर्डिंग के नाम पर अभिभावकों से मोटी फीस वसूलता है तो बच्चों की जिम्मेदारी व सुरक्षा भी उसे दुरूस्त करनी चाहिए, लेकिन ये होता नहीं. बच्चों को कम सुविधाएं देकर पैंसे बचाना ही स्कूल का मकसद रहता है. बोर्डिंग में रहने वाले बच्चों की पढ़ाई तक जिंदगी का महत्वपूर्ण वक्त स्कूल के आया, वार्डन, टीचर, प्रिंसपल आदि तक ही सीमित रह जाता है. उनके बचपने की शैतानियों पर एक तरह से अघोषित बंधन जैसा लग जाता है. उन्हें स्कूल कैदखाने की तरह लगने लग जाता है. वो अपनी बात खुलकर नहीं कह पाते हैं. स्कूल प्रबंधन द्वारा उन्हें स्कूल की बात घर या बाहर कहने पर सख्त मनाही रहती है. इससे कई बच्चे डिप्रेशन का शिकार हो जाते हैं.
बोर्डिंग में रहने वाले बच्चों का सुबह नाश्ते से लेकर दिन व रात का भोजन स्कूल की कैंटीन में ही बनता है. इसके लिए स्कूल हर वर्ष खाने का ठेका कर देता है. ठेकेदार को बच्चों की पसंद के वजाय अपने प्रोफिट से मतलब रहता है. नैनीताल के ही एक सज्जन का कहना है कि इन बड़े स्कूलों में सब दिखावा है. सब्जी की दुकानों से ये लोग सुबह ताजा सब्जी ले जाने के बजाय शाम को बची-खुची खराब सब्जियां ले जाते हैं. वो इन्हें सस्ते में मिल जाती है. हम तो वो सब्जियां फैंक देते हैं. अब बच्चों को ये ऐसा खाना खिलाएंगे तो बच्चे बीमार तो पडेंगे ही. बच्चों को इतना डरा के रखा जाता है कि वो अपने घर में बताने से ही घबराते हैं कि कहीं उन्हें फेल ना कर दें या फिर कोई अन्य सजा ना मिले. भूख लगने पर मजबूरी में बच्चे वो खाना खाते हैं. जब स्कूल में कोई फंक्शन होता है तो उस दिन बच्चों को स्पेशल खाना मिलता है और उस दिन बच्चों के साथ सभी का व्यवहार भी बहुत अच्छा होता है. इससे कई बच्चे सब भूल जाते हैं. इन स्कूलों में सुविधा के नाम पर सब छलावा होता है.
दो साल पहले की बात है ये. नैनीताल में बच्चों की छुट्टी होने वाली थी. दिल्ली से आए एक अभिभावक स्कूल प्रबंधन से बहुत गुस्से में थे. मुझसे मुखातिब हो वो बोले कि, ‘बच्चों को डरा के रखा है यहां तो.. बात करने में ही वो डर रहे हैं.. कह रही है पापा धीरे बोलो मुझे पनिसमेंट मिलेगी बाद में.. बच्ची के सिर में डेन्ड्रफ हो गया है.. जूं पड़ गई हैं.. नहाने ही नहीं देते.. हफते में एक बार.. वो भी बाल नहीं धोने देते हैं ढंग से.. हद है ये तो.. पानी बचाने से पैंसे बच जाते हैं इनके.. खाने का भी बूरा हाल है यहां तो..।’
बाद में पता लगा कि बच्चे के भविष्य का अच्छा सपना देखने वाले वो अभिभावक बोर्डिंग स्कूल का डरावना सच देख अपनी बच्ची को कभी बोर्डिंग में ना डालने की बात पर अपने साथ ही ले गए. लगभग सभी उंचे स्कूलों का हाल एक जैसा ही है. हल्द्वानी, अल्मोड़ा, बागेश्वर, पिथौरागढ़ आदि जगहों में डे बोर्डिंग स्कूलों में बच्चे नशे की गिरफत में हैं. स्कूल प्रबंधन बच्चों को मात्र चंद सद्वविचार की बातें सुना कर अपने कत्तव्यों की इति श्री कर लेता है. स्कूल अब स्कूल नहीं रहे हैं. ये तो अब एक बड़ा बिजनस बन गया है. बच्चे क्या कर रहे हैं इनसे उन्हें कोई मतलब नहीं रह गया है, उन्हें हर वर्ष मोटी रकम से मतलब रहता है. बच्चों की जिंदगी ड्रग, शराब में बर्बाद हो रही है तो होने दो कौन सा बच्चों को ताउम्र स्कूल में ही रहना है. होना तो ये चाहिए कि स्कूलों का माहौल ऐसा हो कि बच्चे गलत राह पर जाएं ही नहीं. स्कूलों में डांट-फटकार, मारपीट के वजाय काउंसलर होने चाहिए. समय-समय पर वो बच्चों को काउंसल करते रहें. लेकिन सबसे पहले स्कूलों में तैनात आया, वार्डन, टीचर, प्रिंसपल आदि की काउंसलिंग होनी चाहिए कि बच्चों से किस तरह से पेश आना है, अपना निजी गुस्सा बच्चों पर नहीं उतारना है. तभी बच्चे खिलखिलाएंगे. लेकिन ये संभव नहीं दिखता. अधिकतर स्कूलों ने अपने यहां जो स्टॉफ रखा होता है उसे वो आज के समय के हिसाब से वेतन नहीं देता. जब स्टॉफ का ही शोषण होगा तो उनसे बच्चों से अच्छे से पेश आने के साथ ही अच्छा पढ़ाने की कल्पना कैसे की जा सकती है.
ये दु:खद है कि अब इन शब्दों के अर्थ बदल गए हैं…..
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्॥
विद्या विनय देती हैं, विनय से योग्यता आती हैं. योग्यता से सम्म्पन्नता आती हैं, जिस से कर्तव्य-कर्म कर पाना संभव होता हैं, जिससे अंततः उसे दु:खरहित स्थिति प्राप्त होती हैं.